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गुरुवार, 5 मई 2016

हिंगलाज देवी

एक लोक गाथानुसार चारणों की प्रथम कुलदेवी हिंगलाज थी, जिसका निवास स्थान पाकिस्तान के बलुचिस्थान प्रान्त में था। हिंगलाज नाम के अतिरिक्त हिंगलाज देवी का चरित्र या इसका इतिहास अभी तक अप्राप्य है। हिंगलाज देवी से सम्बन्धित छंद गीत चिरजाए अवश्य मिलती है। प्रसिद्ध है कि सातो द्वीपों में सब शक्तियां रात्रि में रास रचाती है और प्रात:काल सब शक्तियां भगवती हिंगलाज के गिर में आ जाती है-
सातो द्वीप शक्ति सब रात को रचात रास।
प्रात:आप तिहु मात हिंगलाज गिर में॥
ये देवी सूर्य से भी अधिक तेजस्वी है और स्वेच्छा से अवतार धारण करती है। इस आदि शक्ति ने ८वीं शताब्दी में सिंध प्रान्त में मामड़(मम्मट) के घर में आवड देवी के रूप में द्वितीय अवतार धारण किया। ये सात बहिने थी-आवड, गुलो, हुली, रेप्यली, आछो, चंचिक और लध्वी। ये सब परम सुन्दरियां थी। कहते है कि इनकी सुन्दरता पर सिंध का यवन बादशाह हमीर सुमरा मुग्ध था। इसी कारण उसने अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा पर इनके पिता के मना करने पर बादशाह ने उनको कैद कर लिया। यह देखकर छ: देवियाँ टू सिंध से तेमडा पर्वत पर आ गईं। एक बहिन काठियावाड़ के दक्षिण पर्वतीय प्रदेश में 'तांतणियादरा' नामक नाले के ऊपर अपना स्थान बनाकर रहने लगी। यह भावनगर कि कुलदेवी मानी जाती हैं, ओर समस्त काठियावाड़ में भक्ति भाव से इसकी पूजा होती है। जब आवड देवी ने तेमडा पर्वत को अपना निवास स्थान बनाया तब इनके दर्शनाथ अनेक चारणों का आवागमन इनके स्थान कि और निरंतर होने लगा और इनके दर्शनाथ हेतु लोग समय पाकर यही राजस्थान में ही बस गए। इन्होने तेमडा नाम के राक्षस को मारा था, अत: इन्हे तेमडेजी भी कहते है। आवड जी का मुख्य स्थान जैसलमेर से बीस मील दूर एक पहाडी पर बना है। १५वीं शताब्दी में राजस्थान अनेक छोटे छोटे राज्यों में विभक्त था। जागीरदारों में परस्पर बड़ी खींचतान थी और एक दूसरे को रियासतो में लुट खसोट करते थे, जनता में त्राहि त्राहि मची हुई थी। इस कष्ट के निवारणार्थ ही महाशक्ति हिंगलाज ने सुआप गाँव के चारण मेहाजी की धर्मपत्नी देवलदेवी के गर्भ से श्री करणीजी के रूप में अवतार ग्रहण किया।
आसोज मास उज्जवल पक्ष सातम शुक्रवार।
चौदह सौ चम्मालवे करणी लियो अवतार॥
हिन्दुस्तान में एक मात्र हिंगलाज माता का मंदिर:- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा हम्मीर युद्ध के लिए जा रहा था।उसके साथ में उसकी गर्भवती पत्नी भी युद्ध के मैदान में जा रही थी। रास्ते में एक साधु तपस्या कर रहा था। रानी ने अपना वंश बचाने के लिए सोचा कि मैं अपने अजन्मे बच्चे को इस साधु के पास छौड़ जाऊ। रानी साधु के पास जाकर विनती की कि महात्मा मैं अपना सामान यहा रख जाऊ और वापस आते समय इसे ले जाऊगीं। साधु बाबा तपस्या मे लीन थे, उन्होंने बोला हे माता आप अपनी वस्तु उस अफीम/गांजा के वाले मटके मे रख दो। रानी ने छुरे से पेट चीरकर अपने उस पुत्र को मटके मे डालकर युद्ध मे चली गई। और वह युद्ध मे मृत्यु को प्राप्त हुई। इधर साधु बाबा ने कई साल तक ध्यान लगा लिया। जब बाबा ध्यान से उठे तो देखा कि उस मटके मे एक बालक खेल रहा है।साधु ने उसको उठाया और बोला गेला (पागल) तु इतने समय से कुछ बोला भी नहीं। आज से तेरा नाम गेला रावल रहेगा। वह साधु थे- गोरखनाथ जी औऱ वह बालक आगे जाकर गेहलेश्वर रावल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गेहलेश्वर रावल जी ने राजस्थान के अजमेर जिले के अरावली पर्वतमाला के एक छोटे से पहाड़ पर कठोर तपस्या की बाद मे उस गांव का नाम गेहलेश्वर रावल जी के नाम पर गेहलपुर पड़ा तथा गेहलेश्वर रावल जी ने नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्धों मे से एक स्थान प्राप्त किया।गेहलेश्वर रावल जी ने हिंगलाज माता की कठोर आराधना करके माता को प्रसन्न कर दिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न माता ने सातवीं बार में वरदान मांगने को कहा,तो गेहलेश्वर रावल जी ने माता से कहा कि आप मेरे तपस्या स्थल गेहलपुर मे विराजें। हिंगलाज माता ने गेहलेश्वर जी की विनती को स्वीकार करते हुए कहा कि मैं दिन के आठ पहर मे से सात पहर तो यहीं पर रहुगीं यानि कराची,पाकिस्तान मे। और एक पहर तुम्हारे गेहलपुर मे मेरा निवास रहेगा। यह कहते हुए हिंगलाज माता गेहलेश्वर रावल जी के सात हिंन्दुस्थान, गेहलपुर मे आकर विराजित हो गई ।आज भी हिंगलाज माता का भव्य मंदिर गेहलपुर गांव मे बना हुआ है। गेहलेश्वर रावल जी का धुना लगातार जल रहा है। पहाड़ी के उपर लगभग ११वीं-१२वीं शताब्दी का विशाल किले के आकार का २-३बीघा मे फैला मंदिर बना हुआ है।वहा पर अकबर बादशाह भी आया था जिसकी पूरी सेना को गेहलेश्वर जी ने अपने कमंडल से ही पानी पीला दिया था।अकबर ने उस मंदिर के लिए जागीर मे ३६०गांव दिए। तथा वहा से अकबर ने अपना राज्य हटा लिया और स्वतंत्र घोषित कर दिया था। स्वंतंत्रता के बाद सरकार ने जागीर को जब्त कर कुछ मुवावजा प्रदान किया। वहां पर तालाब तथा दो बावड़ियां भी बनी हुई है।







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