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सोमवार, 23 मई 2016

The town is over 300 years old having been founded in 1681 by Dewan Parasram. After partition Rawat Paras Ramji named his state after Bhagwan Shri Narsingh (incarnation of God Vishnu), who was his deity and aradhya Dev. Thereafter, he founded the town of Narsinghgarh and transferred his capital there and constructed the temple of his aradhya Dev Shri Narsingh Bhagwan. He built a tank known as Paras Ram Sagar The town's lake still bears the name of the founder. The Royal family was well connected directly and indirectly in relationship with all the important Rajput Royal families of India. The State of Narsinghgarh was carved out of the State of Rajgarh by Paras Ramji, the younger brother of the then Ruler of Rajgarh, Rawat Mohan Singhji in 1681 A.D
  • Rawat Paras Ramji (1681–95)
  • Rawat Dalel Singhji (1695)
  • Rawat Moti Singhji (1695–1751)
  • Rawat Khuman Singhji (1751–66)
  • Rawat Achal Singhji (1766–95)
  • Rawat Sobhagh Singhji (1795–1827)
  • Raja Hanwant Singhji (1827–73)
  • Raja Pratap Singhji (1873–90)
  • Raja Mehtab Singhji (1890–95)
  • Raja Arjun Singhji (1895–1924)
  • Maharaja Vikram Singhji (1924–57)
  • Maharaja Bhanu Prakash Singhji (1957)

गुरुवार, 5 मई 2016

Ramgarh











 Ramgarh

  • Ramgarh



    is a Village in Narsinghgarh Tehsil in Rajgarh District of Madhya Pradesh State, India
  • It belongs to Bhopal Division
  • It is located 61 KM towards East from District head quarters Rajgarh
  • 69 KM from State capital Bhopal Ramgarh Pin code is 465669 and postal head office is Narsinghgarh
  • Ramgarh is surrounded by Biaora Tehsil towards North , Berasia Tehsil towards East , Kalapipal Tehsil towards South , Rajgarh Tehsil towards west




हिंगलाज देवी

एक लोक गाथानुसार चारणों की प्रथम कुलदेवी हिंगलाज थी, जिसका निवास स्थान पाकिस्तान के बलुचिस्थान प्रान्त में था। हिंगलाज नाम के अतिरिक्त हिंगलाज देवी का चरित्र या इसका इतिहास अभी तक अप्राप्य है। हिंगलाज देवी से सम्बन्धित छंद गीत चिरजाए अवश्य मिलती है। प्रसिद्ध है कि सातो द्वीपों में सब शक्तियां रात्रि में रास रचाती है और प्रात:काल सब शक्तियां भगवती हिंगलाज के गिर में आ जाती है-
सातो द्वीप शक्ति सब रात को रचात रास।
प्रात:आप तिहु मात हिंगलाज गिर में॥
ये देवी सूर्य से भी अधिक तेजस्वी है और स्वेच्छा से अवतार धारण करती है। इस आदि शक्ति ने ८वीं शताब्दी में सिंध प्रान्त में मामड़(मम्मट) के घर में आवड देवी के रूप में द्वितीय अवतार धारण किया। ये सात बहिने थी-आवड, गुलो, हुली, रेप्यली, आछो, चंचिक और लध्वी। ये सब परम सुन्दरियां थी। कहते है कि इनकी सुन्दरता पर सिंध का यवन बादशाह हमीर सुमरा मुग्ध था। इसी कारण उसने अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा पर इनके पिता के मना करने पर बादशाह ने उनको कैद कर लिया। यह देखकर छ: देवियाँ टू सिंध से तेमडा पर्वत पर आ गईं। एक बहिन काठियावाड़ के दक्षिण पर्वतीय प्रदेश में 'तांतणियादरा' नामक नाले के ऊपर अपना स्थान बनाकर रहने लगी। यह भावनगर कि कुलदेवी मानी जाती हैं, ओर समस्त काठियावाड़ में भक्ति भाव से इसकी पूजा होती है। जब आवड देवी ने तेमडा पर्वत को अपना निवास स्थान बनाया तब इनके दर्शनाथ अनेक चारणों का आवागमन इनके स्थान कि और निरंतर होने लगा और इनके दर्शनाथ हेतु लोग समय पाकर यही राजस्थान में ही बस गए। इन्होने तेमडा नाम के राक्षस को मारा था, अत: इन्हे तेमडेजी भी कहते है। आवड जी का मुख्य स्थान जैसलमेर से बीस मील दूर एक पहाडी पर बना है। १५वीं शताब्दी में राजस्थान अनेक छोटे छोटे राज्यों में विभक्त था। जागीरदारों में परस्पर बड़ी खींचतान थी और एक दूसरे को रियासतो में लुट खसोट करते थे, जनता में त्राहि त्राहि मची हुई थी। इस कष्ट के निवारणार्थ ही महाशक्ति हिंगलाज ने सुआप गाँव के चारण मेहाजी की धर्मपत्नी देवलदेवी के गर्भ से श्री करणीजी के रूप में अवतार ग्रहण किया।
आसोज मास उज्जवल पक्ष सातम शुक्रवार।
चौदह सौ चम्मालवे करणी लियो अवतार॥
हिन्दुस्तान में एक मात्र हिंगलाज माता का मंदिर:- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा हम्मीर युद्ध के लिए जा रहा था।उसके साथ में उसकी गर्भवती पत्नी भी युद्ध के मैदान में जा रही थी। रास्ते में एक साधु तपस्या कर रहा था। रानी ने अपना वंश बचाने के लिए सोचा कि मैं अपने अजन्मे बच्चे को इस साधु के पास छौड़ जाऊ। रानी साधु के पास जाकर विनती की कि महात्मा मैं अपना सामान यहा रख जाऊ और वापस आते समय इसे ले जाऊगीं। साधु बाबा तपस्या मे लीन थे, उन्होंने बोला हे माता आप अपनी वस्तु उस अफीम/गांजा के वाले मटके मे रख दो। रानी ने छुरे से पेट चीरकर अपने उस पुत्र को मटके मे डालकर युद्ध मे चली गई। और वह युद्ध मे मृत्यु को प्राप्त हुई। इधर साधु बाबा ने कई साल तक ध्यान लगा लिया। जब बाबा ध्यान से उठे तो देखा कि उस मटके मे एक बालक खेल रहा है।साधु ने उसको उठाया और बोला गेला (पागल) तु इतने समय से कुछ बोला भी नहीं। आज से तेरा नाम गेला रावल रहेगा। वह साधु थे- गोरखनाथ जी औऱ वह बालक आगे जाकर गेहलेश्वर रावल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गेहलेश्वर रावल जी ने राजस्थान के अजमेर जिले के अरावली पर्वतमाला के एक छोटे से पहाड़ पर कठोर तपस्या की बाद मे उस गांव का नाम गेहलेश्वर रावल जी के नाम पर गेहलपुर पड़ा तथा गेहलेश्वर रावल जी ने नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्धों मे से एक स्थान प्राप्त किया।गेहलेश्वर रावल जी ने हिंगलाज माता की कठोर आराधना करके माता को प्रसन्न कर दिया। उनकी भक्ति से प्रसन्न माता ने सातवीं बार में वरदान मांगने को कहा,तो गेहलेश्वर रावल जी ने माता से कहा कि आप मेरे तपस्या स्थल गेहलपुर मे विराजें। हिंगलाज माता ने गेहलेश्वर जी की विनती को स्वीकार करते हुए कहा कि मैं दिन के आठ पहर मे से सात पहर तो यहीं पर रहुगीं यानि कराची,पाकिस्तान मे। और एक पहर तुम्हारे गेहलपुर मे मेरा निवास रहेगा। यह कहते हुए हिंगलाज माता गेहलेश्वर रावल जी के सात हिंन्दुस्थान, गेहलपुर मे आकर विराजित हो गई ।आज भी हिंगलाज माता का भव्य मंदिर गेहलपुर गांव मे बना हुआ है। गेहलेश्वर रावल जी का धुना लगातार जल रहा है। पहाड़ी के उपर लगभग ११वीं-१२वीं शताब्दी का विशाल किले के आकार का २-३बीघा मे फैला मंदिर बना हुआ है।वहा पर अकबर बादशाह भी आया था जिसकी पूरी सेना को गेहलेश्वर जी ने अपने कमंडल से ही पानी पीला दिया था।अकबर ने उस मंदिर के लिए जागीर मे ३६०गांव दिए। तथा वहा से अकबर ने अपना राज्य हटा लिया और स्वतंत्र घोषित कर दिया था। स्वंतंत्रता के बाद सरकार ने जागीर को जब्त कर कुछ मुवावजा प्रदान किया। वहां पर तालाब तथा दो बावड़ियां भी बनी हुई है।







राजकुमार कुँवर चैनसिंह।

                        राजकुमार कुँवर चैनसिंह।

                  भारत की स्वतन्त्रता के लिए किसी एक परिवार, दल या क्षेत्र विशेष के लोगों ने ही बलिदान नहीं दिये। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात वीर हुए हैं, जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध में मृत्यु तो स्वीकार की; पर पीछे हटना या सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही एक बलिदानी वीर थे मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुँवर चैनसिंह।



                       व्यापार के नाम पर आये धूर्त अंग्रेजों ने जब छोटी रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। राजा लोग समय-समय पर मिलकर इस खतरे पर विचार करते थे; पर ऐसे राजाओं को अंग्रेज और अधिक परेशान करते थे। उन्होंने हर राज्य में कुछ दरबारी खरीद लिये थे, जो उन्हें सब सूचना देते थे। नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।



                                   अब अंग्रेजों ने आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब छोटे राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को सीहोर बुलाया। चैनसिंह अपने दो विश्वस्त साथियों हिम्मत खाँ और बहादुर खाँ के साथ उससे मिलने गये। ये दोनों सारंगपुर के पास ग्राम धनौरा निवासी सगे भाई थे। चलने से पूर्व चैनसिंह की माँ ने इन्हें राखी बाँधकर हर कीमत पर बेटे के साथ रहने की शपथ दिलायी। कुँवर का प्रिय कुत्ता शेरू भी साथ गया था।



                                       जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे; पर वे किसी मूल्य पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार यह पहली भेंट निष्फल रही। कुछ दिन बाद जनरल मेंढाक  ने चैनसिंह को सीहोर छावनी में बुलाया। इस बार उसने चैनसिंह और उनकी तलवारों की तारीफ करते हुए एक तलवार उनसे ले ली। इसके बाद उसने दूसरी तलवार की तारीफ करते हुए उसे भी लेना चाहा। चैनसिंह समझ गया कि जनरल उन्हें निःशस्त्र कर गिरफ्तार करना चाहता है। उन्होंने आव देखा न ताव, जनरल पर हमला कर दिया।



                                       फिर क्या था, खुली लड़ाई होने लगी। जनरल तो तैयारी से आया था। पूरी सैनिक टुकड़ी उसके साथ थी; पर कुँवर चैनसिंह भी कम साहसी नहीं थे। उन्हें अपनी तलवार, परमेश्वर और माँ के आशीर्वाद पर अटल भरोसा था। दिये और तूफान के इस संग्राम में अनेक अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर उन्होंने अपने दोनों साथियों तथा कुत्ते के साथ वीरगति पायी। यह घटना लोटनबाग, सीहोर छावनी में 24 जुलाई, 1824 को घटित हुई थी।



                                      चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में फैल गयी। उन्हें अवतारी पुरुष मान कर आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। घातक बीमारियों में लोग नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी इनकी समाधि पर आकर एक कंकड़ रखकर मनौती मानते हैं। इस प्रकार कुँवर चैनसिंह ने बलिदान देकर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।